सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग – पर ये ‘लोग’ हैं कौन?
सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग! सब अपनी ज़िन्दगी में उलझे हैं, परेशान हैं। ऐसे में क्या सोचेंगे वो आपके बारे में! उन्हें फुर्सत कहाँ?
सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग! सब अपनी ज़िन्दगी में उलझे हैं, परेशान हैं। ऐसे में क्या सोचेंगे वो आपके बारे में! उन्हें फुर्सत कहाँ?
कभी सोचा है?
कौन हैं वो लोग जिनके कुछ बोलने से हम इतना डरते हैं?
लोग क्या कहेंगे, ये सोच-सोचकर जीवन भर हम अपनी इच्छाओं का गला घोंटते हैं।
ऐसे कपड़े मत पहनना, लोग क्या कहेंगे?
ये काम मत करना, लोग क्या कहेंगे?
उनके साथ मत हँसना-बोलना, लोग क्या कहेंगे?
पार्टी नहीं दी, लोग क्या कहेंगे?
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लोग क्या कहेंगे के रोग को अपनी ज़िंदगी से बाहर फेंक दें…
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वक़्त की नज़ाकत को हम क्या समझेंगे…जाने हम कब सुधरेंगे!
लिफ़ाफ़े में सिर्फ 100 रुपये दिए, लोग क्या कहेंगे?
अरे! बस करो बस!
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कान पक गए सुन सुनकर ये घिसे पिटे संवाद! क्या है ये सब?
क्यूँ कर रहे हैं हम ये सब?
अपनी ही इच्छाओं को दबा रहे हैं! खुद के ही ख़्वाबों को छीन रहे हैं? खुद ही खुद की उड़ान को रोक रहे हैं?
सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग! ये ‘लोग’ हैं कौन? ज़रा सोचो, ज़रा रुको और बात करो अपने आप से। ये ‘लोग’ हम ही तो हैं। हाँ! दूसरों के लिए हम ‘लोग’ हैं और हमारे लिए दूसरे।
चलो ज़रा इस तरह सोचें। आपके सामने जो पड़ोसी रहते हैं, जी हाँ, मैं आप ही से कह रही हूँ। आपके सामने जो पड़ोसी रहते हैं ना, शर्मा, वर्मा, मिश्रा या अग्रवाल जो भी हैं, मान लो उनके बिज़नस में बड़ा नुकसान हुआ। अब पैसे की बहुत तंगी है। पर वो ये खुलासा होने देना नहीं चाहते और वैसी ही दिखावे की ज़िदगी जी रहे हैं क्यूंकि पता नहीं आप क्या कहेंगे।
अब आप ही बताइए आपको क्या पड़ी है उनके बिज़नस से! आपके तो खुद के बिज़नस की ही वाट लगी पड़ी है, लेकिन आप भी तो उन्हीं की तरह हैं। अंदर से खोखले हो रहे हैं लेकिन ऊपर इतना दिखावा कि पूछो मत।
लो भई! दोनों ज़िंदगियों को आसान बनाया जा सकता था, थोड़ी सी समझ से। लेकिन नहीं! हल की बजाय माथे में और बल पड़ गए।
किसी एक साहब का कोई भी काम शुरू नहीं हो पा रहा था। अब ये साहब अच्छी-खासी जायदाद के मालिक थे।
खुद कुछ कमाया नहीं। बाप-दादा का कमाया सब उड़ा दिया। चलो कोई बात नहीं। अब भी देर नहीं हुई। अब कुछ काम कर लो। पर नहीं! उन्हें तो अपने स्टैण्डर्ड का काम चाहिए। ये सोच जो बीच में आ जाती है, उसका क्या करें।
कौन सी सोच भाईसाहब? ये ही कि लोग क्या कहेंगे? अब उन्हें कौन समझाए कि काम से स्टैण्डर्ड बनाया जाता है न कि स्टैण्डर्ड से काम।
सीधी सी बात है। सब अपनी ज़िन्दगी में उलझे हैं, परेशान हैं। उनसे उबरने की कोशिश में लगे पड़े हैं, सुबह से रात तक, दिन से साल तक। ऐसे में क्या सोचेंगे वो आपके बारे में! उन्हें फुर्सत कहाँ? और जो लोग खुश हैं अपनी जिंदगी में, वो जीवन की इन खुशियों को सहेजने में ऐसे लिप्त हैं कि उन्हें आपकी प्रोब्लेम्स के बारे में सोचने का वक़्त नहीं।
चलिए एक और उदाहरण लीजिये। आपको एक शादी में जाना है। आप तो हैं मिडिल क्लास लेकिन शादी आपके हायर क्लास रिलेटिव के घर है। अब वहां अटेंड करने के लिए तो स्टैण्डर्ड के कपड़े, जूते, ज्वेलरी, मेकअप चाहिए। साथ ही साथ गिफ्ट भी अच्छा देखना है। ऐसा वैसा तो चलेगा नहीं। नहीं तो, लोग क्या कहेंगे!
ठीक है ! तो आपने अपनी जेब काट के, मन मसोस के सब ख़रीदा और फंक्शन अटेंड किया।
फिर? उससे क्या हुआ? क्या आपके कपड़ों पर किसी का ध्यान गया? क्या किसी ने आपकी मैचिंग ज्वेलरी और शूज़ देखे? हाँ! देखे ना! आपने खुद ने! क्यूंकि बाकी सारे भी तो ये ही कर रहे थे। अपने खुद के महेंगे कपड़े, ज्वेलरी दिखाने की कोशिश। आप पार्टी में ये सोच रहे थे कि शायद सब मुझे देख रहे हैं और बाकी सब भी ये ही सोचकर इधर-उधर देख रहे थे कि उन्हें कौन-कौन देख रहा है।
इसे कहते हैं सेल्फ-ओबसेशन। हम अपने आप को इतना चाहते हैं कि अपनी इन्सल्ट या नीचा दिखना ज़रा भी बर्दाश्त नहीं और इसीलिए कुछ ऐसा नहीं करते जिससे लोग कुछ कहें।
सबको ऐसे ही जीना है। ऐसी ही आदत हो गयी है हमें। पर बस एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए, ये समाज हमसे ही बना है। हम ही हैं वो ‘लोग’ जिनसे सब ‘लोग’ डरते हैं और हमें ये अच्छे से पता है कि अगर कोई अपने मन की करना चाहे तो हम उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते, क्यूंकि उस वक़्त हम ये सोचकर रुक जाते हैं, “छोड़ो, हमें क्या पड़ी है। अब लोगों को तो अपने हिसाब से चला नहीं सकते। हम में इतनी हिम्मत कहाँ?”
तो लो भई! घूम फिरकर बात वहीं पहुँचती है कि एक ही ज़िन्दगी है, जी लो जी भर के! लोग कुछ नहीं कहते। सिर्फ़ हम ही सोचते हैं। और अगर लोग कुछ कहें तो याद रखें हम भी तो ‘लोगों’ में ही हैं, वापस कह सकते हैं।
अब छोड़िये यह सब सोचना क्यूंकि दुनिया में सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग!
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